Sunday, January 1, 2012

लघुकथा लेखन की समस्याएं

लघुकथा लेखन की समस्याएं

भगीरथ

हिन्दी साहित्य में लघुकथा को पगधरे करीब तीन द्शक बीत चुके हैं इस दौरान लघुकथा लेखन का विस्तार और विकास महत्पूर्ण रहा , लेकिन हिन्दी साहित्य में यह नव्यतम विधा उपेक्षित रही । इसके प्रति साहित्यकारों का नजरिया नकारात्मक ही था इसकी तुलना चुटकलों से की गई है इसे अगम्भीर लेखन माना गया , तो कभी घटिया लेखन माना गया । किसी ने इसे कहानी की रुपरेखा समझा तो किसी ने संक्षिप्तीकरण । कोई कह रहा था कि भविष्य में कहानी लेखन के लिए आज लघुकथा लिखकर लेखन की प्रेक्टिस कर रहा है । कई कह रहे थे लघुकथा लेखन साहित्यकार बनने का शाँर्टकट है , यह तुरत - फुरत लिखी जाती है । और प्रकाशित भी हो जाती है , ऐसी चालीस पचास कथाएं लिखकर साहित्यकार बनने का भ्रम पाला जा सकता है । कहा गया यह तात्कालिक लेखन है , इसमें चिंतन की शक्ति नहीं है लघुकथा लेखन चटपटी मसालेदार सामग्री पत्र - पत्रिकाओं को मुहैया करवाता है , पाठक को भी यही पंसद आता है , इसलिए इनका चलन हो गया है , जैसे पाठक - लेखक प्रकाशक के बीच कोई साहित्य के विरुद्ध दुरभिसंधि बन गई हो। लघुकथा बकवास है , प्रतिष्ठित लेखकों द्वारा इसी तरह की राय ने लघुकथा लेखकों को निश्चय ही उत्साहित तो नहीं किया होगा । कई लघुकथा लेखकों ने ऐसी प्रतिक्रियाओं को चुनौती मानकर बेहतर लघुकथा लेखन मे जुट गये । जिस उपेक्षा और ठडे दिल से इस विधा की ओर साहित्यकार ने देखा , उसने नवोदित रचनाकारों का हतोत्साहित हो जाना संभव था मगर पाठको की अनुकुल प्रतिक्रियाओं और पत्र पत्रिकाओं में बढ़ते प्रकाशन अवसर ने उनमें अपेक्षित साहस बनाये रखा । आज उनका क्या एटीटयूड है / ठीक है , खाने मे चट्नी की तरह चलेगी । आज उपेक्षा इतनी मुखर नहीं है । कुछ साहित्यकारों ने इस ओर ध्यान देना भी आरम्भ कर दिया है ।





इस सन्दर्भ में किताब घर, नई दिल्ली ने चैतन्य त्रिवेदी के लघुकथा संग्रह " उल्लास" को पुरुस्कृत किया है जिनके निर्णायकों में कमलेश्वर , राजेन्द्र यादव और चित्रामुदगल है । कमलेश्वर का मत है कि उल्लास के आने से लघुकथा विधा स्थापित हो गई है । प्रतिष्ठित लेखकों की घोषणा का प्रभाव साहित्य जगत पर पडना था और पड़ा भी (वैसे कमलेश्वर तो लघुकथा के पक्षधर रहे हैं और उन्होनें सारिका के लघुकथांक भी निकाले थे। चित्रामुदगल स्वयं लघुकथा लेखन में सृजनरत रही है । तथा 'आवा' उपन्यास के बाद उनकी प्रतिष्ठा बढ़ी है, राजेन्द्र यादव 'हंस' में लघुकथा को कुछ महत्व देने लगे हैं इनके सकारात्मक दृष्टिकोण से साहित्य जगत में लघुकथा को कुछ महत्व मिलने लगा है ।) यहीं नहीं किताबघर ने कमल किशोर गोयनका की लघुकथा सम्बंधी आलोचना की पुस्तक 'लघुकथा का व्याकरण' प्रकाशित कर लघुकथा को एक पुश दिया दिया है । प्रतिष्ठित प्रकाशन गृह से प्रकाशित होने से भी लघुकथा समीक्षा की ओर समीक्षक बढ़ेंगे ।

और समीक्षा के अधुरे कार्यभार पूरे होंगे । तीस वर्ष की सृजनात्मकता में से भी कुछ सकारात्मक चीजें ढूंढी जायेंगी ऐसी आशा है । वे लोग बिरले ही होते हैं जो महत्व न मिलने के बाद भी लगे रहते है क्योंकि यह उनकी व्यकितगत प्रतिबद्धता का सवाल है ।



कितनी विधाओं से लघुकथा को कन्फयूज किया गया , इस सन्दर्भ में कृष्ण कमलेश लिखते है ' कितनी ही विधाओं से लघुकथा को अलग होना पड़ा है - गुलिस्तां - बाेंस्ता की उददेश्यपरकता नीतिकथाओं का केन्द्रीयपन , गधगीत की भावुकता आदि । बोधकथाओं संस्मरणों , रेखाचित्रों , दृष्टांत , चुटकुलों , विनोदकथनों यहां तक कि सूकितयों से भी अपना असितत्व अलग करना पड़ा है। लेकिन कया लघुकथा इनसे पूरी तरह अलग हो पार्इ ? इनका प्रभाव तो लघुकथा में किसी न किसी रूप में चलता आ रहा है ।



लघुकथा की विकास यात्रा में ' विष्णुप्रभाकर लिखते हैं ' लघुकथा ने दृष्टांत , रूपक , लोककथा , बोधकथा , नीतिकथा , व्यंग्य , चुटकुले , संस्मरण ...... ऐसी अनेक मंजिलें पार करते हुए वर्तमान रूप पाया हे । और अपनी सामथ्र्य को गहरे अंकित किया है । वह अब किसी गहन तत्व को समझने , उपदेश देने , स्तब्ध करने , गुदगुदाने और चौंकाने का काम नहीं करती बलिक आज के यर्थाथ से जुड़कर हमारे चिंतन को धार देती है । अणुयूग में लघुकथा विराट और वामन , भूमा और अल्प के सम्बन्धों को नया अर्थ देती हे । इसके शब्द अल्प पर अर्थ भूमा है । वह सुत्र रूप में जीवन की विराटता की व्याख्या करती है । उसकी अपनी भाषा होती है । न भावुकता , न उहापोह , न आसकित पर अर्थ वहन करने की क्षसमताओं में अपूर्व है । यही अपूर्वता लघुकथा को सशक्त और मार्मिक बनाती है । आदर्श लघुकथा वह है जो किसी कहानी का कथानक न बन सके ।



विषय वस्तु के स्तर पर लघुकथा में स्पष्ट परिवर्तन दिखार्इ पड़ता है और यह है यर्थाथ जीवन का लघुकथा में समावेश लेकिन रूप के स्तर पर कोर्इ स्पष्टता नजर नहीं आती , न ही भाषा के स्तर पर । लघुकथा के कर्इ - कर्इ रूप प्रकाशित हो हमारे समक्ष आ रहे है। कथ्य को छोटे - से छोटे रूप में कहने की ललक ने कर्इ तरह के प्रयोग किये है । दो - चार पकितयों की लघुकथाओं का चलन भी बढ़ा था जो अब समाप्त प्राय सा है। जैसे आरमिभक काल (आठवें दशक) में पेरोडी लघुकथाओं का चलन था । बाद में पेराडी समाप्त हुर्इ तो व्यंग्य कथा का चलन बढ़ा , यर्थाथ परक (जीवन के चित्र) लघुकथाओं का चलन बढ़ा , विडम्बना , विरोधाभास , कथनी - करनी के भेद जेसी लघुकथाये ढेर सी लिखी गर्इ । अथार्थ लघुकथा जगत में परिवर्तन ही मन्त्र है । कभी प्रतिकाें का जोर बढ़ेगा , तो कभी बिम्बों का , तो कभी रूपकों का , ऐसा होना लघुकथा की जीवतंता ही प्रर्दशित करता है । जो फोर्म लम्बे समय तक टिक जायेगा वह लघुकथा के वास्तविक रूप को प्रकट करेगा । तीन दशकों से जिस फोर्म पर लगातार विभिन्न लोगों ने लिखा है , वह है यर्थाथ परक लघुकथाऐं । भविष्य में यह ही लघुकथा लेखन की मुख्य धारा होगी ।

क्रमश: