Friday, January 11, 2013

हिन्दी लघुकथाओं में दलित संघर्ष

हिन्दी लघुकथाओं में दलित संघर्ष : भगीरथ

वर्तमान हिन्दी साहित्य में मुख्यत: तीन विमर्श लोकप्रिय है भूमंडलीकरण , स्त्री व दलित विमर्श । भूमंडलीकरण का मुख्य आयाम आर्थिक है जबकि स्त्री एवं दलित का सामाजिक। सदियों से पोषित भेदभाव पूर्ण धारणाएँ हमारे सामाजिक जीवन में रच बस गई है , समाज इन धारणाओं को मान्यता प्रदान करता है , वे हमारे रीतिरिवाजों , परम्पराओं और मूल्य बोध का हिस्सा बन गई है ,इन्हीं संस्कारों के अनुरूप हम व्यवहार करते हैं यह व्यवहार बराबरी का न होकर भेदभावपूर्ण होता है , फिर भी हमें वह अन्यायपूर्ण नहीं लगता , इसी सोच को बदलने के लिए दलित विमर्श की जरूरत है। दलित विमर्श समानता की सोच का पोषण करती है ओर भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष का आह्रवान करती है , विमर्श नीति निर्माताओं का ध्यान भी अपनी ओर आकृष्ट करती है ओर दलितों के संगठनों को वैचारिक धार देती है । साथ ही गैर दलितों के वैचारिक सोच में बदलाव लाने का प्रयत्न करती है । साहित्य के संदर्भ में विमर्श की आवश्यकता लेखक पाठक विचारक को है ताकि वे विमर्श के विषय के विभिन्न आयामों को गहराई से समझ सकें और विमर्श के उद्देश्यों के अनुरूप रचनाओं का मूल्यांकन कर सकें ।
स्वतंत्रता , समानता और बंधुत्व की भावना लोकतंत्र का प्राण है । इन मूल्यों के पोषण से ही लोकतंत्र मजबूत होता है ;लेकिन हमारा सामाजिक ढाँचा इस तरह का है कि समानता और बंधुत्व की भावनाएं दम तोड़ती नजर आती है , इस संदर्भ में पिछले 60–62 वर्षों में जो भी सामाजिक परिवर्तन हुए है , वे बिल्कुल सतही है परिवर्तन की रफ़्तार इतनी धीमी है कि कि अगली शताब्दी तक भी इन दुराग्रहों से मुक्त हो पाना सम्भव नहीं लगता; क्योंकि भेदभाव अब स्थूल न होकर सूक्ष्म रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है।
साहित्य में दलित चेतना ब्राह्मण वादी सोच के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान करती है। छुआछूत और भेदभाव को उजागर कर उस पर चोट करती है , पग पग पर दलित को अपमानित जीवन जीना पड़ता है उसका दंश दलित लेखकों की आत्मकथाओं में परिलक्षित होता है। कुछ लेखकों का मानना हे कि दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकता है ; क्योंकि यही उसका भोगा यथार्थ है , लेकिन दलित साहित्य में अब उन गैर दलित लेखकों को भी शामिल किया जाता है जो दलित चेतना से लैस है और जाति विहीन समता मूलक समाज की स्थापना के उद्देश्य से प्रेरित है । रतन कुमार साँभरिया इस सन्दर्भ में लिखते हैं – ‘‘जिस साहित्य में चेतना का भाव नहीं, वह दलित साहित्य कहलाने का हक नहीं पाता है , यह चेतना चाहे दलित की कलम से आई हो, चाहे गैर दलित की कलम से । चेतना जो दलितों को आत्मविश्वास , आत्मनिर्भरता , आत्मसम्मान और परिवेशगत शोषण के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए जाग्रत करे । दलित चेतना ही दलितों के दलित्व को दूर करेगी और इसमं दलित और सवर्ण दोनों ही समाज के लेखकों को समान धर्मा सोच रखनी होगी । जिसका लेखन दलित चेतना का संवाहक है वही दलित लेखक कहलाने का अधिकारी है । साहित्य में आरक्षण जैसी माँग बेमानी है । इस मायने में चेतना दलित साहित्य का सबसे बड़ा सौन्दर्य शास्त्र है।’’
दलित साहितय में दलित संघर्ष की अभिव्यक्ति काफी तीखी रही है , उसे ओर तल्ख होने की जरूरत है क्योंकि मनुष्य के दुराग्रह इतनी आसानी से नहीं मिटते उसके लिए विमर्श के साथ सामाजिक आन्दोलन की भी आवश्यकता है , तमिलनाडु में नायकर के नेतृत्व को संचालित आन्दोलन को इस संदर्भ में उदाहरण स्वरूप देख सकते हैं। ऐसा आन्दोलन जो धर्म की दलित विरोधी एवं ब्राह्मणवादी सोच को ध्वस्त करने का कार्य करे, तथा धर्म और ईश्वर की सत्ता पर प्रश्न उठाए । जो डॉ. अम्बेडकर के मूल मंत्र -शिक्षित हो, संगठित हो, संघर्ष करो’‘पर अमल करे । उत्तर भारत में दलितों के संगठित सामाजिक आन्दोलन की अनुपस्थिति के कारण सामाजिक परिवर्तन धीमा रहा है; बल्कि जातिवादी मानसिकता मजबूत हुई है , जिसके पीछे राजनीति का हाथ है , केवल साहित्य के स्तर पर विमर्श से दलितों के दमन, शोषण , अपमान और अत्याचार को निमू‍र्ल नहीं किया जा सकता , दलित विमर्श और दलित आन्दोलन एक दूसरे को धार प्रदान कर दलितों की स्थिति में जबरदस्त बदलाव ला सकते है।
दलित साहित्य या दलित आन्दोलन को समतामूलक एवं शोषण रहित समाज की स्थापना के उद्देश्य से प्रेरित होना चाहिए , धर्म, जाति, लिंग आधारित भेदभावों को समूल नष्ट करना उनका अभीष्ट होना चाहिए ।
हिन्दी लघुकथाओं में दलित संघर्ष की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है , लेकिन दलित लघुकथांको की अनुपलब्धता के कारण पूरा रचना कर्म बिखरा पड़ा है, व उसका सम्पूर्ण आकलन आलोचक के लिए मुश्किल कर्म रहा है ।डॉ. रामकुमार घोटड़ ने जरूर , ‘दलित समाज की लघुकथाएँपुस्तक प्रकाशित कर इस दिशा में एक सराहनीय कार्य किया है लेकिन इस दिशा में और संगठित प्रयास करने की आवश्यकता है ।
हिन्दी लघुकथाओं से गुजरते हुए हमारे समक्ष दलित जीवन के कई परिदृश्य उभरते है । जाति व्यवस्था में हर कोई एक दूसरे से या तो ऊँचा है या नीचा, यहॉं तक कि एक ही जाति में एक समुदाय ऊँचा है तो दूसरा नीचा, जैसे बाह्मणों में कान्य कुब्ज अपने को सर्वोपरि मानते है और दूसरे ब्राह्मणों को अपने से निम्नतर मानते हैं । इसी तरह नीची कही जाने वाली जातियों में भी ऊँच -नीच का भाव कायम करके समानता के भाव को समूल नष्ट करके, वर्चस्व कायम करने वाली जातियों ने अन्य जातियों पर अपमान , अन्याय और अत्याचार किए। कितने शासक बदलें, शासन व्यवस्थाएँ बदलीं, लेकिन सारतत्त्व में यह जाति व्यवस्था ज्यों की त्यों कायम है । छूआछूत विरोधी एवं अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण कानून बन जाने से अब भेदभाव नये नये सूक्ष्म रूपों से प्रकट हो रहा है ।
मकान किराये पर देने से पहले मकान मालिक किरायेदार की जात जानना चाहते है , ‘सरनेम से तो आड़ीजात’(अनीता वर्मा) के लगते है तब तो इन्हें दूसरी जगह कमरा तलाशना पड़ेगा, जातिवादी दुराग्रह इसे किराये के मकान से वंचित कर देते है।
जलस्तर नीचे जाने से गाँव के कुओं का पानी सूख गया लेकिन दलित बस्ती के कुएँ का जलस्रोत ऐसा था कि उसमें भरपूर पानी आता था ।ऊँची जात वालों ने सभा करके- हम सब एक हैंका नारा दिया और दूसरे दिन से वे भी उस कुएँ का पानी पीने लगे । लेकिन धीरे धीरे एक ही कुएँ के दो भाग हो गए एक तरफ से उच्च जाति तो दूसरी तरफ से नीची कही जाने वाली जात के लोग पानी खींचते। आधेअधूरे’(सुकेश साहनी)अगर यही स्थिति उलट दी जाये तो वर्चस्वकारी जातियॉं इतनी हृदयहीन साबित होगी कि इन जात वालों को पानी नहीं भरने देगी चाहे उनके प्राण ही क्यों न निकल जाएँ ।प्रेमचन्द की कथा ठाकुर का कुआँमें यह अच्छी तरह व्यक्त हुआ है।
यही छुआछूत की बात अछूत’ (यास्मीन) कथा में व्यक्त हुई है। इस भेदभाव पर अछूत मजदूरनी का तर्क बड़ा सशक्त है, ‘आपके घर में गेहूँ छू दिया तो उसका सत्यानास हो गया और खेत में हम ही लोगन के विरादर काटत, ढोवत है , बोरा मा भरत है , तब नाहीं सत्यानास होता है।। विवेकहीन भेदभाव को युगों से ढोते रहे लोगों में अब कुछ समझ पैदा होने लगी है और उसका जवाब देने का साहस भी उत्पन्न हुआ है।
अशोक भाटिया की कथा दो कपों की कहानीभी इसी भेदभाव को प्रकट करती है। कथानायक भेदभाव नहीं करना चाहता फिर भी संस्कारित मन भेदभाव कर ही देता है । अपने लिए साबुत कप में चाय डालता है तो सफाई कर्मचारियों के लिए टूटे कप में भेदभाव जीवनपर्यन्त ही नहीं मृत्य पर भी देखा जा सकता है सबै भूमि गोपाल की‘(राधेश्याम मेहर) में गाँव गुरू का शवदाह कहाँ किया जाए ,इस पर विवाद है ।शवदाह यहाँ नहीं हो सकता ;क्योंकि चार दिन पहले ही पोकर धाणक को जलाया गया तथा, वहाँ भी नहीं, वहाँ चतरा चमार को जलाया था और वहाँ भी नहीं , वहॉं कालू हरिजन को दाग दिया था ।
छोटे से बच्चे ने सफ़ाईवाले के घर की रोटी क्या खाई, माँ विफर गई, ‘रोटी का टुकड़ा’ (भूपिन्दर सिहं) कथा का यह वार्तालाप देखें ।
जा तू भी सफ़ाईवाला बन जा, तूने उनकी रोटी क्यों खाई?
उनके घर का एक टुकड़ा खाकर मैं सफ़ाईवाला हो गया
और नहीं तो क्या ?’
और वे हमारे घर की सालों से रोटी खा रहे हैं वे क्यों नहीं ब्राह्राण हो गए ?’
बच्चा फर्क करना नहीं जानता लेकिन मॉं संस्कार देती है बच्चे के प्रश्न का माँ के पास कोई जवाब नहीं है , फिर भी जो मानते आए है वहीं मानेंगे ,ये दुराग्रह क्यों नहीं टूटते ? क्योंकि ऊँची जात वालों के हृदय में उनके प्रति घृणा कूटकूट कर भरी है।
दलित जातियों को अपमानित करने के लिए उन्हें घृणित व्यवसाय सौंपे गए, उन्हें साधनहीन कर अपना मोहताज बना दिया । आज वे अपमान से भरे जातिगत शब्दों से निजात पना चाहते हैं, लेकिन लोग उन पर जाति चस्पा कर ही देते है
शापित शब्द’ – में चैतन्य त्रिवेदी रचित पात्र मोचीशब्द से निजात पाना चाहता है। साब आप मुझे मोची न कहें ,यह लफज मुझे घुटनभरी दुनिया में जा फेंकता है , आप मुझे कॉबलर कहे।
जातिगत नये शब्द ईजाद हो रहे है, अपमानित करने के लिए जाति का नाम न लेकर कह देते है कोटे से आया लगता है’ ‘सोशल इक्वीटी’ (अमित कुमार) कथा में धीमे काम कर रहे बैंक कैशियर पर किसी ने उपर्युक्त कमेंट कसा–, बस कैशियर मिश्रा को आग लग गई जैसे बहुत बड़ी गाली दे दी गई हो, गाली तो है ही जरा ज्यादा सूक्ष्म है।
छोटी छोटी बातों को लेकर दलितों के प्रताडि़त किया जाता रहा है,बकरी के गढ़ में घुसकर बेल पर मुँह मारने पर उसकी खूब पिटाई हुई ,आज उसी गढ़ की दीवार पर कुत्ता टाँग ऊँची कर मूत रहा हे तो उसे सुकून मिल रहा है। जज्बात’ (रामकुमार घोटड़)। मालिक इतने हृदयहीन होते हैं कि प्रसव पीडि़त बँधुआ महिला को काम से छुट्टी नहीं दी, जिससे उसका बच्चा गिर गया। भ्रूण हत्या’ (कमल चोपड़ा)
सरजू मेघवाल की भोपाल सिंह ने पिटाई इसलिए कर दी कि वह उनके खेत में काम अधूरा छोड़कर अपने भाई की शादी में शरीक होने गया था, इस अत्याचार का प्रतिकार करना चाहता था सरजू । वह थाने गया , न्यायालय गया प्रशासन के पास गया लेकिन सब जगह कुर्सियों पर मूँछे ही मूँछे नजर आई यानी सत्ता के सभी प्रतिष्ठानों पर उनका कब्जा है अब अत्याचार के विरुद्ध कहाँ सुनवाई होगी।
साधन सम्पन्न सवर्ण साधनों के बल पर उठते स्वाभिमान को कुचल देते है और आर्थिक शोषण को बदस्तूर कायम रखते है माध्यम’ (बलराम अग्रवाल) दिनवा भाभी के पास 10 बिसुवा जमीन थी , चौधरी के ट्यूबवैल से , उसके खेत को पानी मिला तो वही जमीन उसका पेट भरने लगी , अपने खेत की निराई के लिए एक दिन चौधरी के खेत पर मजदूरी नहीं की बस चौधरी रूठ गए उन्होनें खेत सींचने से मना कर दिया खेत नहीं सीचा तो फसल सूख गई , दिनवा के घर फिर फाके पड़ने लगे तब से फिर दिनवा चौधरी की मजदूरी पर जा रहा है।
स्वाभिमान की भावना ही दलित को हीन भावना से उबारेगी। हराम का खाना’ (श्याम बिहारी श्यामल) में दलित महिला का प्रत्युत्तर कितना सशक्त है और स्वाभिमान से भरा है कि पाठक चकित रह जाता है।
इन छोटे लोगो की बहुओं को कोई क्या देखने जाए, वे तो खुद ही दो चार दिनों में गोइठा चुनने, पानी भरने निकलेगी ही
हॉं बाबूजी हम लोग हराम की तो खाते नहीं कि महावर लगाकर घर में बैइी रहे ।
आरक्षण’ (सुनील कुमार सुमन) को लेकर बड़ी हायतौबा मची है ,लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि कॉलेज के सभी विभागों में आरक्षित पद खाली पड़े हैं। फिर भी ठसक यह है कि सरकार इन्हें खींचखींच कर नौकरी देती है और सवर्णो के मेरिटोरियस लड़के बेरोजगार घूम रहे हैं। सरकार ने रिजर्वेशन तो दे दिया पर दिमाग कौन देगा ?’ जैसे टेलेंट का पूरा ठेका सवर्ण के ही पास हो।
दलित को मिले आरक्षण को भी अपने पक्ष में करने की साजिश करते है , ‘अदला बदली (मालती बंसत) लेकिन दलित खरा जवाब दे देता है
मैं बाह्मण जाति का हॅू , आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है , आप गोद ले लो तो मुझे हरिजन स्कालरशिप मिल जाएगी ।
मेरा भी बेटा है , वह सवर्ण बच्चों के साथ पढ़ने के कारण हीनभावना से ग्रस्त है , तुम अपने पिताजी से पूछ कर आओ कि क्या वे मेरे बेटे को गोद ले लेंगे ।
आरक्षण के संदर्भ में सूरजपाल चौहान की कथा चिल्लपोंभी उल्लेखनीय है। एम.एस.सी. में एडमिशन ले रही एस.सी. छात्रा के फार्म देखकर दूसरी छात्रा बोली तुम्हारा तो दाखिला हो जाएगा, तुम तो शिड्युल्ड कास्ट हो, फिर जनरल सीटों, में से भी कोटे के लोग झपट्टा मार ले जाते है।दुराग्रह से भरे पडे है सवर्णों के मन ।
आजादी के पहले निरक्षरता का यह आलम था कि गाँव के गाँव निरक्षर थे यहाँ तक कि ब्राह्मण भी। ऐसे निरक्षर पंडित की चिठ्ठी दलित के बेटे ने पढ़ ली, इस बात पर उसे मार डाला, जबकि उनके आग्रह पर ही उसने चिठ्ठी पढ़ी थी । बनैले सूअर’ (विक्रम सोनी) शीर्षक ऐसे पंडितों के लिए कितना सार्थक है।
दलित मेधावी बच्चों के प्रति भी उच्चशिक्षित प्राध्यापकों के दुराग्रह सतीश दुबे की कथा शिष्यत्वमें स्पष्ट दिखाई देते हैं दलित छात्र रतिराज चौहान ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया तो मिठाई लेकर विभागाध्याक्ष के पास गया , और उनके मार्गदर्शन में शोध करने की इच्छा प्रकट की, लेकिन जाति पूछने पर जब उसने बताया कि वह रैदासी है तो उनका प्रत्युत्तर था कि हमारे अंडर में सम्भव नहीं है सभी स्थान भरे है। वे एकदम झूठ बोल गए ।
यही पक्षपात द्रोणाचार्य जिंदा है ’ (रतन कुमार साँभरिया ) में दिखलाई पड़ता है । गुरुजी ने जब परीक्षा परिणाम देखा तो भौंचक्के रह गए , दलित के छोरे रामदीन ने मेरिट में पहली रैंक हासिल की है । जबकि उनका अपना बेटा उससे काफी पिछड़ गया था उन्होंने रामदीन की सभी उत्तर पुस्तिकाएँ निकाल कर पुनर्मूल्यांकन किया । कुंठित मन ने प्रतिशोध लिया और उसे अनुत्तीर्ण कर दिया । दलितों के विरुद्ध ऐसी साजिशें रची जाती है ,ताकि वे आगे न बढ़ सके।
साँभरिया की एक अन्य कथा वजूदमें विधवा रमिया का पुत्र हवेली के चौक में बैठा प्रवेशिका पढ़ रहा था तो जमींदार की आँखों में किताब कंकड़ी की तरह फँस गई , बोले जा काम मैं अपनी मॉं का हाथ बटा , ले चवन्नी ले जा और टॉफी खा । लड़के ने चवन्नी वापस फेंक दी और उनके हाथ से अपनी किताब झटक कर पुन: पढ़ने लगा , अगर ये पढ़ लिख गए तो इनकी टहलुवाई कौन करेगा ?
संवला दलित की इच्छा थी कि उसका बेटा रूपला (रूपला कहाँ जाए माधव नागदा) पढ़ लिखकर नौकरी करे कुर्सी पर बैठे, पंखे की हवा खाए लेकिन रूपला की विवशता थी , ‘कठे जाऊँ ? स्कूल जाऊँ मास्टर मारे , घर जाऊँ तो बाप ठोके ।पढ़ने की स्थितियों न घर में हे , न स्कूल में रूपला पढ़ेगा कैसे?
अगर दलित पढ़लिखकर प्रशासनिक अधिकारी बन जाम तेा सारा धरम करम नष्ट हो जाता है जिसने सदियों से मैला ढोया , आज हम पर शासन करेंगे । उच्च वर्ण के अहंकार को यह स्वीकार्य नहीं है- युगों युगों का मैल इन्दिरा खुराना
उच्च शिक्षा में सवर्णो का ही दबदबा है और वे जातिगत दुराग्रहों से गले तक भरे हुए हैं। एम.ए. की मौखिक परीक्षा में प्रत्याशी से प्राध्यापक ने नाम पूछा, उसने अपना नाम राधेश्याम बताया । उन्होंने पूरा नाम बताने पर जोर दिया सर राधेश्याम ही तो मेरा पूरा नाम है। वे जाति जानने पर उतारू थे । मेरी क्या जाति है यह तो मैं आपको बाद में बताऊँगा , पहले मैं आपको आपकी जाति बतलाता हूँ । सर, आप ब्राह्मण है ;क्योंकि जाति व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा सिर्फ़ ब्राह्मण ही जाति पूछता हे । ब्राह्मण सिर्फ़ और सिर्फ़ जाति के आधार पर श्रेष्ठ बनता है , नहीं तो उसमें है ही क्या! ‘‘यूइलमैनर्ड’ (पूरण सिंह ) गेट आउट एंड गेट लोस्ट ।’’ अब आप ही बताइये इलमैनर्ड कौन है ? प्राध्यापक या प्रत्याशी ।
दलित अपने बच्चों के नाम’ (चित्रा मुदगल) गंदे व भद्दे रखते हैं जिससे वे नाम से ही पहचाने जा सके । अच्छा नाम रखने पर ठाकुर को मिर्ची लग जाती है , ‘तूने अपने बेटवा का नाम देवेन्द्रसिंह लिखवाया है? तुम्हारी सुअर सी औलादों को स्कूल में , पढ़ने की सरकारी इजाजत क्या मिल गई , ठाकुर बामनों के नाम रखने लगी ।
दलित युवक एक दूसरे को घणा मान सू लाया‘(भगीरथ) ठीक वैसा ही सम्बोधन जैसा राजस्थान में राजपूत एक दूसरे को करते है, तो ठाकुर का अहम् आहत हो जाता है
ओ गणियों कदसूँ गणसा बन गयो हैवे युवको के साथ मारपीट करने लगते है, तुम्हें तुम्हारी औकात दिखानी पड़ेगी तब वे दोनों मिलकर ठाकुर की ही धुनाई कर देते है।
पंचायती राज संस्थाओं में जब से दलित जातियों और उनकी महिलाओं के लिए आरक्षण लागू किया है , नये नये मंजर सामने आने लगे है। वर्चस्वकारी जातियां इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रही है और नये तरीके से सत्ता अपने हाथ में समेटने की कोशिश कर रही है। अपनी विश्वसनीय दलित महिलाओं को चुनाव में जितवाकर प्रधानी अपने कब्जें में करली सुरक्षित सीट’ – डॉ. पूरणसिहं व अगूँठाराज’ – नदीम अहमद ।
उभरते दलित नेतृत्व को ठिकाने लगाने का काम अभी से किया जाए ताकि भविष्य सुरक्षित रहेसहानुभूति’ ‘योगेन्द्र दवे में बंशी के बेटे को सरपंच नौकरी दिलवा रहे है; क्योंकिबी.ए. पास करते ही लड़के के पर निकलने शुरू हो जाते है, साला गाँव में नेतागिरी शुरू करेगा । सरपंच का चुनाव भी लड़ सकता है , अभी से बाबूगिरी थमा दो तो ठीक रहेगा
जिसके बाप ने जनम भर हरवाही की , उसी का लड़का हमारे खिलाफ चुनाव लड़े, चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है, ‘नींव’ (हीरालाल नागर) वे हर हालत में चुनाव जीतना चाहते है।
दलित महिला सरपंच बन जाती है लेकिन निर्णय सरपंचपति लेता है फिर भी उसे लगता है कि उसकी पूछपरख’ (भगीरथ) बढ़ रही है। सूमटी सरपंच के नाम से जाने लगी है , जलसों में मंच पर बैठती है और दो शब्द भी बोल देती है।
दलित स्त्री का दैहिक शोषण उच्च जातियों के पुरुष करते आए है, ‘भूरी’ (सतीशदुबे) जमादारिन अर्जी लेकर कार्यालय पहुँची तो चपरासी ने बड़ी खिदमत कर बताया कि साहब छूतछात बिल्कुल नहीं मानते और बाद में अर्जी मंजूर करने के बदले उसकी देह को रोंद दिया । दलित स्त्रियों के यौन शोषण से उत्पन्न लड़कियों को भी वे अपनी हवस का शिकार बना लेते है , ‘ई बड़े लोग खुद ही बीज बोते हैं और खुद ही फसल काट लेते है’ ‘बीज का असर ’(सतीश राठी) उच्च जातियाँ सामाजिक नैतिकता से भी , अपने को परे मानती है, वस्तुत: वे उन्हें मनुष्य ही नहीं मानती है ।
अनाचार के खिलाफ अब दलित अपने तर्क गढ़ रहा है और प्रतिशोध लेने पर तुला है। जिस पंडित ने बहना को छुआ है वह बिरादरी के सामने दलित बनेगा या परलोक जायेगा अब ब्रह्म हत्या और नरक का डर उसे विचलित नहीं कर सकता , ‘राम भरोसे बलराम अग्रवाल
जागृति’(अशोक लव) में नववधू की मुँह दिखाई रस्म के नाम पर ठाकुरों द्वारा बलात्कार किया जाता है, उनका मान मर्दन करने का इससे अच्छा तरीका क्या हो सकता है ताकि वे कभी उसके सामने खड़े न रह सके।
मोहन राजेश की कथा अछूतमें दैहिक शोषण की शिकार स्त्री जबाबी हमला करती है जब वह ब्राह्मण की रजाई में घुस सकती है तो रसोई में क्यों नहीं पंडित उसका रौद्र रूप देखकर थरथराने लगता है । चुनौती’(भगीरथ) में दलित समुदाय बलात्कार के आरोपी के विरुद्ध खड़ा हो जाता है चुनौती की यह मुद्रा अब उसे भारी पड़ने लगी है।
दलितों पर अत्याचार व अनाचार करने का सुदीर्थ इतिहास है , जो इतिहास के पन्नों से गायब है क्योंकि इतिहास लिखने वाले इन्हीं अत्याचारियों के लग्गे भग्गे थे । लेकिन अब अत्याचार को चुपचाप सह लेने, भाग्य और कर्मो को कोसने की बजाय उसके मन में प्रतिकार व प्रतिशोध के शोले उठ रहे है, यह प्रतिकार लघुकथा में भी बखूबी व्यक्त हो रहा है।
जूते की जात’ (विक्रम सोनी) का रमोली जब पंडित सियाराम की गर्दन पर उठे हूल को अपना जूता मारने उठा तो उसकी आँखों के आगे सृष्टि से लेकर इस पल तक निरन्तर सहे गए जुल्मों सितम अपमान के दृश्य साकार हो उठे ।उसने पूरी ताकत से मिसिरजी की गर्दन पर जूता जड़ दिया। अवसर मिलते ही उसने अपने ढंग से दलित अपमान का प्रतिशोध ले लिया ।
जमाने की बदलती हवा आँधी’(चित्रेश) का रूप ले रही है तभी तो रमेसरा हलवाहा ठाकुर रघुराजसिहं को सीधा साधा जवाब दे रहा है और वे सन्न रह जाते है। तिनके भी सर उठाने लगे है सिर उठाते तिनके तारिक असलम का जमींदार किसना से कह रहा है। सुना है पाँच मील दूर कमाने जाते हो मेहरारू भी तेरे साथ जाती है, बेचारी को इतनी दूर क्यों ले जाता है ।हमारी हवेली में क्यों नहीं भेजता , नई नवेली दुल्हन को मुँह दिखाई के लिए भी नहीं लाया क्या इरादा है तेरा , गाँव में रहना है कि नहीं
रहना तो यहीं है लेकिन मेरी महरारू किसी के घर के काम नहीं करेगी
आदिवासी भील मजदूरों पर दया कर कम्बल बाँटने आए सत्पुरूष/ठेकेदार को उस युवक से तगड़ा जवाब सुनना पड़ा जो उन्हीं के बीच रहकर उन्हें संगठित कर रहा था ।ये हमें खरीदने आए है, ताकि हम दिहाड़ी बढ़ाने की, झोंपड़ी बनवाने की , स्नान शौचालय बनवाने की माँग न करे । यह दया नहीं , हमारे हक छीनने का षडयंत्र हैश्रमशील व्यक्ति को दया नहीं रोजगार और उसकी उचित मजदूरी चाहिए ।
सर्कस’ (एन उन्नी) देखकर बंधक मजदूरों को लगा कि गुर्रानेवाला शेर वे स्वयं है और सामने हंटर लिए वही ठाकुर गुरूदयाल खड़े है पिंजरे में हो या बाहर, गुलामी आखिर गुलामी होती है । उनकी आकांक्षा है कि वे इस गुलामी से बाहर आएँ।
छोटी जात वालों के कुएँ में गिरे आदमी को उन्होंने बाहर निकाल कर उसकी जात’ (युगल) पूछी । साले जात पूछते हो? यह कड़कड़ाती मूँछे , ये चमकते रोएँ और रंग नहीं देखते? तब उन लोगों ने उसे फिर कुएँ में डाल दिया क्योंकि लोग उसकी जात जान गए थे ।
डॉं. रामकुमार घोटड़ नेएक युद्ध यह भीकथा में दलित के प्रतिकार को विशिष्ट ढंग से दर्शाया है। झीमती के पेट में दो भ्रूण पल रहे थे, एक बलात्कारी ठाकुर विचित्रसिंह का व दूसरा अपने पति बदलू का। वे आपस में लड़ रहे है।
तुमने मुझे नीच कहा! पापी, कमीने, हरामी की औलादऔर बदलू के अंश से उस पर भरपूर ठोकर का बार किया विचित्र सिंह का अंश लुढकता हुआ जमीन पर गिरा तब झीमली को भी राहत मिली।
सूरजपाल चौहान की सत्तो बुआभी एक विद्रोही चरित्र है। ठाकुर भैंसा बुग्गी में बैठना चहता था। जब लक्खु उसे नहीं बैठाता तो उसे जाति सूचक शब्दों से अपमानित करता है क्यों रे खटीका के, बहरौ है गयो है’ ‘ना बिठाऊँ , बुग्गी मैं अपनी बुआ के लाया हूँ । ठाकुर मारने पीटने लगता है तो सत्तो बुआ पैना उठाकर ठाकुर पर बरसाना शुरू कर देती है ।ठाकुर घबरा कर भाग खड़ा होता है
हरामी के तेरे बाप की बुग्गी है , तुझे क्यों बिठाऊँअब दलित प्रताड़ना नहीं सहेगा वह उठ खड़ा हुआ है।
अभी दलित औरतें मंदिर के गर्भगृह में जाकर शिवलिंग पर जल चढ़ा आती है हिम्मत तो देखिए, (भगीरथ)। अछूत’ (रामयतन प्रसाद यादव) के हाथ से बनी मूर्ति जब मंदिर में प्रतिष्ठित हो जाती है तो उसे मंदिर में दर्शनार्थ घुसने नहीं दिया जाता । कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाये । लेकिन धर्म के नाम पर बलिदान देना हो तो अछूत याद आता है पराकाष्ठा’ (रतन कुमार साँभरिया) में नानकिया का बेटा साँड से भिड जाता है ताकि भगवान की रथयात्रा का रास्ता खुल जाय । बेटा खोने के बावजूद भी नानकिया ने अपने आप को समझाया कि राजा मोरध्वज ने भी अपने इकलौते पुत्र को आरे से चीरकर भगवान की सेवा में परसदिया था । लेकिन जब रथ मंदिर के सामने खड़ा होगया और मूर्ति को रथ से उतरवाने जब वह आगे बड़ा तो पुजारी की आँखों में घृणा उतर आई । नानकिया मूर्ति मत छूना, भगवान भरिष्ट हो जायेंगे ।
दलित को मानवीय गरिमा से जीने का हक मिले दलित संघर्ष का यही उद्देश्य है। धर्म सत्ता , अर्थ सत्ता और सामाजिक सत्ता दलितों के विरुद्ध रही है आजादी के बाद राजनैतिक सत्ता ने उन्हें राजनीति में आरक्षण, सरकारी भर्तियों में आरक्षण और विशेष सुविधा पेकेज दिये है, दलित अत्याचार निवारण कानून भी बने है लेकिन वे उनकी स्थिति में बहुत परिवर्तन नहीं ला पाए हैं , अभी बहुत दूरी तय करनी है ।
हिन्दी लघुकथा साहित्य में दलित के प्रति हो रहे भेदभाव को अभिव्यक्ति दी है और उस पर व्यंग्य की चोट भी की है । दलितों को बात बात पर प्रताडित करना, उनकी स्त्रियों पर बलात्कार करना, और आर्थिक शोषण को अभिव्यक्ति दी है यही नहीं दलितों को अपने हक के प्रति सचेत करने, उनमें स्वाभिमान का भाव जगाने और प्रतिगामी शक्तियों से संघर्ष करने की प्रेरणा भी दी है । इस तरह हम कह सकते है कि हिन्दी लघुकथा ने दलित जीवन के विभिन्न चित्र प्रस्तुत किये है और इसलिए दलित विमर्श में लघुकथा साहित्य भी महत्त्वपूर्ण साबित होगा ।
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