Sunday, August 24, 2014


                                                                                                 

मानवीय मूल्यों की हित चिंता पूरन मुदगल की  लघुकथाऍ   


भगीरथ

वैसे तो पूरन मुदगल  का जन्म फाजिल्का पंजाब में हुआ लेकिन इनकी कर्मभूमि हरियाणा ही रही व चौबीस  दिसम्बर 1931 को जन्में श्री मुदगल व्यवसाय से शिक्षक रहे। वे प्रौढ़शिक्षा  अधिकारी के पद से सेवानिवृत हुए । उन्होनें नवसाक्षरों के लिए ‘पहला झूठ’ पुस्तक लिखी । उन्होंने करीब दो वर्ष तक ‘अक्षर पैगाम’’ नामक पाक्षिक पत्रिका का सम्पादन किया। शिक्षा के साथ -साथ वे साहित्य और विशेषकर लघुकथा से संबद्ध रहे। वे प्रगति शील  लेखक  संघ की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहे तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन   ( सिरसा ) के विभिन्न पदों पर कार्य किया। साहित्य और शिक्षा से संबद्ध पूरन मुदगल अब भी साहित्य सेवा में रत है।


जून 1964 में हिन्दी मिलाप (जालंधर) में प्रकाशित  लघुकथा ‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’ हरियाणा -पंजाब की प्रथम प्रकाशित  लघुकथा है। श्री मुदगल का लघुकथा संग्रह ‘निरंतर इतिहास’ (1982) हरियाणा का प्रथम लघुकथा संग्रह है इसके पहले सुगनचंद मुक्तेश  का ‘स्वाति बूंद’ (1966) में प्रकाशित  हुआ लेकिन वह नीति -उपदेश  कथा के दायरे में आता है जबकि ‘निरंतर इतिहास’ आधुनिक हिन्दी लघुकथा का प्रतिनिधित्व करता है।
श्री मुदगल के शब्दों में ‘लघुकथा किसी वास्तविक घटना, व्यक्त्ति या अनुभव के संवेदनशील  अंश  का काल्पनिक वृत्त है। निःसंदेह वे आधुनिक लघुकथा को यर्थाथ से जोड़ते हैं लेकिन उनके लेखन की समीक्षा करते समय हमें यह ध्यान रखना होगा कि वे उस समय लिख रहे थे जब आधुनिक लघुकथा अपना स्वरूप गढ़ रही थी। कृष्ण कमलेश  के शब्दों में ‘बेहतर फार्म’ की तलाश  में थी। अतः उनके संकलन को ऐतिहासिक मानते हुए निर्मम समालोचना की जरूरत नहीं है , उस समय लघुकथा के बारे में एक बात तो स्पष्ट थी कि कथ्य तेज तर्रार हो । उनका कथ्य प्रकटीकरण प्रभावशाली हो  लेकिन सरल सुबोध शैली प्रबुद्ध पाठकों को आकर्षित नहीं कर पाती। हो सकता है श्री मुदगल ने कई लघुकथाएं नवसाक्षरों केा ध्यान में रखकर लिखी हो।
हम आज अपने लाभ व नुकसान की दृष्टि से सही व गलत का निर्णय करते है। नैतिक मूल्यों के निर्धारण का समाजपेक्षी दृष्टिकोण अब बदल कर व्यक्तिपेक्षी हो गया है। हम ही है जो बच्चों को ‘पहला झूठ’ बोलना सिखाते है। विडम्बना देखिये  कि बेइमान व्यक्ति भी अपने यहां ईमानदार कर्मचारी चाहता है (सबसे बड़ी बात) ‘साहस’ की बात करने वाला स्वयं साहसहीन है।
बड़े लोग ‘जीत’ हासिल कर ही लेते है , चाहे इसके लिए षड़यंत्र का सहारा ही क्यों ने लेना पड़े । ‘बिना टिकट’ में रेल विभाग के टिकट का पैसा टी.टी. व यात्री में बंट जाता है. ‘बकाया’ मार्मिक लघुकथा है। बस कन्डक्टर यात्रियों की बकाया राशि  हड़प जाता है।  लेकिन एक दिन उसकी पुत्री इन्हीं बकाया पैसे की टाफिया खरीद कर खुश  होती है, तोे उसकी अंतरात्मा में विचार कौंध  जाता है कि उसने न मालूम कितनों की खुशियां छीन ली है। ‘दोस्त’ कहां रहे गये है। औपचारिकताएं स्वार्थ और सुविधाओं के हिसाब रहे गये है । ‘पतन’ में प्रश्न पत्र लीक होने को चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा मानने वाला स्वयं लीक हुए प्रश्नपत्र का स्त्रोत पूछ रहा है। शहरी बहू उपयोगितावादी समझ रखती है , पुराने कपड़े देकर बरतन लेती है जबकि उसकी ग्रामीण सास दयावश  गरीबों को पुराने कपड़े पहनने को दे देती है । उपयोगितावाद ने मनुष्य को भावहीन कर दिया है। ‘जुनून’ में आदमी साम्प्रदायिकता के वशीभूत हो निरपराध को मार देता है जबकि कुत्ता भी अपराधी को सूंघकर , उस पर आक्रमण करता है।
‘अबीज’ मुदगल  की विशिष्ट रचना है। यह आर्थिक उदारीकरण व भूमंडलीकरण के दौर की कथा है। जिसमें यह दर्शाया  गया है कि लाभ कमाने के उद्देश्य  से गेहूं का ऐसा बीज बनाया है जो बाली से निकलकर फट जाता है । अगली फसल के लिए यह बीज का काम नहीं कर सकता । किसान को हर बार बीज उसी कम्पनी से लेना पड़ेगा। लाभ की अंधी दुनिया में मनुष्य व उसके सरोकार बहुत पीछे छूट गये है।
मेहनत कश  जीवन को छूती ‘निरंतर इतिहास’ कथा में इस बात को रेखांकित किया गया है कि हजारों सालों से मजदूर के साथ दास जैसा व्यवहार किया जात रहा है। ‘भाव ताव’ में ओस की बूँदों  और पसीने के बूंदों की तुलना इस तरह की गई है कि पसीने की बूँदे  अधिक मूल्वान लगने लगी । ‘अपनी साईकिल’ ज्यादा मूल्यवान है , उत्तराधिकार में मिली कार से।
‘पूरी सच्चाई’ यह है कि जनता के मेहनतकश  हिस्सों की मांग तभी मानी जाती है जब चुनाव आसन्न हो। ‘स्वेच्छाचार’ सत्ता का स्वभाव है। स्वेच्छाचारी राजा दूसरों को दंडित करने में सुख का अनुभव करता है। ‘रिहाई’ में राजनैतिक तिकड़म को उजागर किया गया है । पुरन मुदगल  की राजनीति से संबधित लघुकथाओं में स्वेच्छाचारिता , तिकड़म, पांखड , गिरते नैतिक चरित्र, संसद का अवमूल्यन , येन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होने की प्रबल आकांक्षा आदि को रेखांकित किया गया है।
धर्म के बाह्यचारों को ही धर्म समझकर पुण्य बटोरने की नीयत से वह ‘तीर्थयात्रा’ करता है। लेेकिन वहां भी वह दुनियादारी में फंसा रहता है और तीर्थयात्रा मात्र पांखड होकर रह जाती है। ब्राह्मण को रोजगार की तलाश  थी और उसे दयाकर खाना बनाने व बर्तन मांजने का काम दिया जाता है , तो वह भड़क उठता है।मेरा  धरम भ्रष्ट कर रहे हो । यानि वह जाति को धर्म से जोड़ देता है । ब्राह्मण होकर झूठे बरतन साफ करूंगा जातीय अहंकार को प्रकट करता है। यहां श्रम की महत्ता को नजरअंदाज किया गया है। ‘बाहर - भीतर' में भक्त भगवान से अपने निहित स्वार्थ को पूरा करने की प्रार्थना करते है। जबकि अंतरात्मा उन्हें धिक्कारती है । वे अंतरात्मा को बाहर रखकर भीतर भगवान की पूजा प्रार्थना कर आते है। ‘मेरा पंडा’ में भक्त का परिवार संगम में नाव उलटने से बच जाता है तो वह पंडे को खूब दान - दक्षिणा देता है , जबकि उसी नाव में सवार दूसरे व्यक्ति ने नाविक को 50 रू. और धन्यवाद दिया कि उसने सबकी जान बचायी। ये रचनाएं धार्मिक विश्वासों, अधंविश्वासों और पाखंड को उजागर करती है लोग बाह्यचारों में फंसे , धर्म के मर्म तक नही पहुंच पाते। वे भगवान को अपनी आकांक्षाएं पूरी करने वाली एक एजेंसी  के रूप में देखते है। वे उस धारणा में विश्वास  करते है कि भगवान कुछ भी कर सकता है, और अगर वे प्रार्थना से प्रसन्न होंगे तो उनकी आकाक्षाएं पूरी कर देंगे।
डाॅ  शंकर पुणतांबेकर ने ‘निंरतर इतिहास’ की समीक्षा करते हुए लिखा है ‘पूरन मुदगल  संस्कार के लघुकथाकार है’ यानि कुसंस्कारगत व्यक्ति के चित्रण में सिद्धहस्त है। मानवीय जीवन में मूल्यों के पतन पर वे विशेषतौर पर चिंतित नजर आते है।
हंसराज रहबर ने ‘निंरतर इतिहास’.की भूमिका में लिखा है .......इनके पात्रों में अध्यापक  शिष्य , नेता, व्यापारी , मजदूर , स्त्री - पुरूष, बच्चे सभी दिखाई पडेंगे। मुदगल  ने जीवन की साधारण घटनाओं को इस तरह उकेरा है कि वर्तमान समाज का कोई न कोई सत्य आपकी नजरों के सामने साकार हो जाता है। उदाहरण के लिए ‘पुल’ की घटना किसी व्यक्ति की घटना नहीं है। हमारे सामाजिक जीवन का सामान्य सत्य है। उनकी लघुकथा जातिवाद पर करारा प्रहार है। भ्रष्टाचार और कालाधन हमारी जिंदगी में कहां तक घर कर गया है। ‘बिना टिकट’ और तीन ईंट - तिमंजला मकान’ इसके सशक्त उदाहरण है। ‘सौन्दर्य’ में घटना मामूली है , लेकिन इससे लेखक का दृष्टि कोण स्पष्ट होता है। कुछ लोग अपने सुख सौन्दर्य के लिए किसी दूसरे का घर नष्ट हो जाए तो इसमें कुछ बुराई नहीं समझते है, लेकिन लघुकथा के नायक को यह बात पंसद नहीं , उसके भीतर का मानव पुकार उठता है। मुझे ऐसा सुख नहीं चाहिए , ऐसा सौन्दर्य नहीं चाहिए । यह तो साम्राज्यवाद का सौदर्य है।
श्री मुदगल सामाजिक व राजनैतिक विद्रूपताओं  के विषय उठाते है साथ ही वे संबधों में पनप रहे स्वार्थ, पाखंड पूर्ण चरित्र और अभिजात्य के नाम पर पनप रहीं सांस्कृतिक  विद्रूपताओं के विषय भी अपनी लघुकथाओं में उठाते है।
वर्तमान भारतीय राजनीति पर टिप्पणी ‘पूर्व अभ्यास’ में की गई है। क्लास में शोर व नारेबाजी होती देख, अभिभावक मुख्याध्यापक से पूछता है ‘यह सब क्या चल रहा है।’ मुख्याध्यापक ने बताया कि माॅक संसद का पूर्वाभ्यास चल रहा है। यह भारत की संसदीय राजनीति की एक विकृति की ओर ईशारा  करती है। ‘स्वागत’ के भूखे नेताओं और अधिकारियों को गच्चा देने के लिए गांववालों ने एक स्थायी स्वागत द्वार बना दिया है ‘लोकप्रिय’ नेता का यह हाल है कि उसकी सभा में गिने - चुने लोग है , लेकिन वह हताश  नहीं है , घोषणा करवाता है कि आपके लोकप्रिय नेता आपका इंतजार कर रहे है, क्योंकि भाषण खोखले साबित हो चुके है। ‘भविष्य’ में नेता के कथनी - करनी के अंतर को दर्शाया  गया है। वे भाषणों में जनता का उदबोधन न करते हुए कहते है कि हम अपने भविष्य के स्वयं निर्माता है। वही व्यक्ति अपना भविष्य अखबार में देखता है।
‘अमरता’ आध्यात्मिक धरातल को छूती है तो ‘सम्मान’ सामाजिक रूढि़यों को ढोते रहने की विवशता दिखाती है। पूरन मुदगल की लेखकीय चिंता राजनीति के गिरते स्तर , सामाजिक मूल्यों के पतन, धार्मिक पांखड और अंधविश्वास , संबधों में घुस आए स्वार्थ के साथ ‘ साथ मेहनतकश के श्रम की महत्ता को रेखांकित करती है इनकी लघुकथाओं की सबसे बड़ी कमजोरी उसका शिल्प पक्ष है लेकिन हमे नहीं भूलना चाहिए कि ये लघुकथाएं उस दौर की है जब लघुकथा शैशव अवस्था में थी।
‘निंरतर इतिहास’ की समीक्षा करते हुए ललित कार्तिकेय लिखते है , ‘कथा के लघु होने से कथाकार और उसके सामाजिक कलात्मक दायित्व लघु नहीं हो जाते, बल्कि बढ़ जाते है। पूरन मुदगल की लघुकथाओं का यह संग्रह किसी -किसी कथा में शिल्प और दृष्टि को संतुलित कर वास्तव में उनकी प्रतिभा के प्रति आश्वस्त  करता है।
पूरन मुदगल द्वारा अपनाई गई रचना विन्यास की विभिन्न तकनीकों  पर प्रो. रूपदेव गुण कहते है। लेखक ने तुलनात्मक तथा प्रतीकात्मक पद्वतियों का सहारा लिया है। ‘भाव - ताव’ कथा में ओस की बूंद तथा पसीने की बूंद की सुदंर ढंग से तुलना की गई है। ‘सहारा’ में बोगनबिलिया  की बेल के सहारे प्रतीक पद्वति को उभारा गया है। विरोधाभास व कथनी -करनी के अंतर से भी रचना विन्यास किया गया है। दोहरे चरित्रों के पाखंड को खोलने में भी विरोधाभास महत्वपूर्ण तकनीक हैं लेकिन यह तकनीक अब काफी रूढ़ हो गई है इसमें अब कुछ नया करने की जरूरत है। पूरनमुदगल   की लघुकथाओं में व्यंग्य की मार है, तो कहीं हृदय के भाव है, अंतरात्मा की पुकार भरी है।वे ऐसे समाज की कल्पना करते है जहां मनुष्य संसस्कार से परिपूर्ण हो, नैतिक  मूल्यों से आप्लावित होकर, व्यक्तिवादी सोच छोड़कर पुनः समाजपेक्षी दृष्टिकोण अपनाए।

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