Wednesday, October 12, 2011

Monday, September 5, 2011

इन्टरनेट का मन्दिर

डा. उमेश महादोषी


प्रतीक बेहद निराशा की स्थिति में पापा के बेड के पास जमीन पर बैठा हुआ था। ‘साल भर ही तो हुआ है, पापा ने कितने अरमानों के साथ अपनी तमाम जमा-पूँजी लगाकर उसका दाखिला मेडीकल में करवाया था। और पापा आज स्वयं इस स्थिति में.....। कितने ही डाक्टर्स को दिखा लिया पर बीमारी का ही पता नहीं चल पा रहा है और उनकी हालत दिनोंदिन सीरियस होती जा रही है.....!’ प्रतीक की अपनी पढ़ाई तो आगे हो पाना असम्भव ही हो गया है, क्यों कि पापा के इलाज के लिए भी अब परिवार की सम्पत्तियां बेचने की नौबत आ चुकी है। ....‘हे भगवान! अब क्या करूँ..... !’

अचानक उसके दिमांग में एक विचार आया, क्यों न इन्टरनेट पर सर्च की जाये! मेडीकल की भाषा तो वह इस एक वर्ष में समझने ही लगा है। हो सकता है पापा की बीमारी का कोई समाधान मिल जाये! ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में तो हर बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान निकल आता है....!’ और प्रतीक अपना लैपटाप खोलकर इन्टरनेट पर सर्च करने बैठ गया।

तीन-चार घंटे तक लक्षणों के आधार पर बीमारियों, विभिन्न बीमारियों के लक्षणों तथा मेडीकल केस स्टडीज आदि के सन्दर्भ में गहन खोज के बाद अचानक एक ऐसे केस का पता चला, जिसमें पैसेन्ट की बीमारी के लक्षण पापा की बीमारी से मिलते-जुलते थे। उसे यह भी पता चला कि इस पैसेन्ट का इलाज अमेरकिा के सुप्रसिद्ध डॉक्टर एबॉट ने किया था और वह इस तरह की बीमारियों पर शोध भी कर रहे हैं। प्रतीक ने अपने एक सीनियर प्रोफेसर डा. मिश्रा सर को कन्सल्ट करने के लिए फोन लगाया। डा. मिश्रा ने डा. एबॉट के बारे में बेहद उत्साहजनक जानकारी देते हुए बताया कि डा. एबॉट दिल्ली में बतौर विजिटिंग कन्सल्टेन्ट डा. शिराय के हास्पीटल में आते रहते हैं। हो सकता है उनका निकट भविष्य में भी कोई विजिट हो। डा. शिराय उनके परिचित हैं, वह थोड़ी देर में मालूम करके काल करेंगे। प्रतीक ने डा. मिश्रा को ‘थैंक्स सर’ कहकर फोन रखा तो एक आशा की किरण उसके अन्तर्मन में झांकने लगी थी। करीब आधा घंटा बाद इस अच्छी सूचना के साथ डा. मिश्रा सर का फोन आया कि डा. एबॉट परसों सुबह दिल्ली आ रहे हैं, और डा. शिराय ने उनकी रिक्वेस्ट पर उसी दिन शाम पाँच बजे का समय प्रतीक के पिता को देखने के लिए नियत करवा दिया है।

नियत दिन और समय पर डा. एबॉट ने प्रतीक के पापा का चैक अप करके बताया- ‘इस तरह के लक्षणों वाले बहुत कम पैसेन्ट अब तक देखने में आये हैं और उनमें से एक-दो को छोड़कर कोई भी नही बचा है। दरअसल इस बीमारी के बारे में किसी पैसेन्ट पर कुछ एक्सपेरीमेन्ट जरूरी हैं, इसके लिए वह अभी तक किसी पैसेन्ट को तैयार नहीं कर पाये, अतः उनका शोध अधूरा ही है। परीक्षण पूरी तरह रिस्की है और पैसेन्ट के बचने की सम्भावना दो-चार प्रतिशत से अधिक नहीं है। आपके पैसेन्ट के बारे में भी इलाज न होने या वर्तमान सीमित नॉलेज के आधार पर इलाज किए जाने पर भी बचने की सम्भावना इससे अधिक नहीं है। और यदि आप लोग मुझे नियत परीक्षण इनके ऊपर करने की इजाजत दे दें, तब भी यही सम्भावना है। इनका बेटा मेडीकल पढ़ रहा है, वह मेरी बात को शायद समझ सके। परीक्षणों के बाद यदि बीमारी की पहचान और उसके निदान के अपने अनुमानों को कन्फर्म कर पाया, तो आपका पैसेन्ट तो बच ही जायेगा, भविष्य में इस बीमारी से अन्य लोगों को बचाना भी सम्भव हो जायेगा। न बचने की स्थिति में मैं अधिक कुछ तो नहीं कर सकता, पर कम्पन्सेशन के तौर प्रतीक की शेष पढ़ाई के व्यय के साथ कुछ और भी वित्तीय मदद आपके परिवार की करने को तैयार हूँ।’

विदेशी डॉक्टर की बात सुनते ही प्रतीक के दादा जी क्रोध में आ गये- ‘ये विदेशी हमें समझते क्या हैं! हम यहाँ इलाज कराने आये हैं या अपने बीमार बेटे को इनकी खोज के लिए बेचने .......!’ उस वक्त हॉस्पीटल में मौजूद कुछेक पत्रकारों को पता चला, तो उन्होने भी इस मसले को ‘भारतीय बनाम विदेशी’ रंग मे रंगकर कई टी.वी. चैनलों पर प्रसारित करवा दिया। शाम होते-होते मुद्दा पूरे मीडिया में छाने लगा।

प्रतीक ने इस पूरे मसले पर पापा के बारे में डॉक्टर एबॉट के बताए गये फैक्ट के साथ-साथ मेडीकल और सामाजिक नजरिए से सोचा, तो वह परेशान होने लगा। उसे लगा कि परीक्षण करना ही सही विकल्प है, पर दादाजी को कैसे समझाये, माँ से कैसे बात करे? काफी सोच विचार के बाद वह डाक्टर एबॉट से अकेले में मिला, और सारे प्रकरण में उनको लक्ष्य बनाये जाने पर माफी मांगते हुए परीक्षणों के लिए अपने परिवार को तैयार करने के लिए कुछ वक्त मांगा। डॉक्टर एबॉट ने इस पर सहृदयता दिखाते हुए कहा- ‘मैं समझ सकता हूँ।’

इसके बाद प्रतीक ने साहस करके अपनी माँ और दादाजी को समझाया- ‘परीक्षण न करने पर हमें क्या हासिल होना है, पापा के बचने की सम्भावना न के बराबर है। और यदि परीक्षण के बाद उन्हें बचाया जा सका तो हमारी खुशियाँ तो लौट ही आयेंगी, हम मेडीकल साइन्स की प्रगति और समाज की भलाई में भी सहभागी बन जायेंगे ......। इसलिए प्लीज आप अपनी सहमति दे दीजिए.....!’ कई घंटे तर्क-वितर्क चला, और अन्ततः दादाजी मान गये। अगले दिन पूरा परिवार डॉक्टर एबॉर्ट से मिला, और पिछले दिन जो कुछ हुआ, उसके लिए उनसे क्षमा मांगते हुए परीक्षण और इलाज करने का अनुरोध किया।

सौभाग्य से परीक्षण सफल रहे। बीमारी की सही पहचान और निवारण को लेकर डॉक्टर एबॉट के अनुमान बिल्कुल सटीक निकले। पूरे मीडिया में इस प्रकरण के दूसरे और सही पक्ष की चर्चा भी पूरे देश ने देखी-सुनी। प्रतीक के पापा का इलाज सफलतापूर्वक हुआ और अगले कुछ माह में पूरी तरह ठीक हो गये।

आज घर में खुशियों-भरा माहौल था। प्रतीक की माँ ने सभी लोगों से भगवान का धन्यवाद और दर्शन करने मन्दिर चलने का अनुरोध किया तो प्रतीक ने याद दिलाया- माँ, असली कृपा करने वाला भगवान तो इन्टरनेट है, जिसने हमें डॉ. एबॉट से मिलवाया। और इस ग्लोबल भगवान का मन्दिर यह मेरा लैपटाप है, पहले इसके आगे तो मत्था टेक लो .....! और .... यदि हम सब अपने सामाजिक नजरिए को परिवार और देश की सीमाओं से परे भी विस्तार दे पायें तो........!

Monday, August 22, 2011

भू-मण्डल के स्वामी


डा. उमेश महादोषी
                                                                                                        


‘नहीं सर, इतने सम्वेदनशील विषय पर मैं किसी विदेशी विश्वविद्यालय के साथ साझेदारी की सलाह नहीं दे सकता। सर मेरा अनुमान है कि इससे हमारे विश्वविद्यालय ही नहीं, देश को भी भविष्य में नुकसान हो सकता है। प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग जैसी प्रतिभाओं का हमें बहुत सोच समझकर और देश के हित में उपयोग करने की रणनीति बनानी चाहिए। मैं उन दोनों के बिषयों कम्प्यूटर विज्ञान और न्यूक्लियर विज्ञान के समन्वय से एक नया कोर्स तैयार करने और उसे अपने विश्वविद्यालय में चलाने के आपके विचार से उत्साहित हूँ और उसका पूरा समर्थन भी करता हूँ। पर सर, मेरा मानना है कि हमारे ये दोनों युवा प्रोफेसर्स किसी भी विदेशी प्रोफेसर से इस नए बिषय पर कहीं ज्यादा सक्षम सिद्ध होंगे।’ प्रति-उपकुलपति प्रो. सिन्हा ने अपनी दलील उपकुलपति प्रो. राठौर के सामने रखी। प्रो. राठौर ने एक बार सोचा और प्रो. सिन्हा को समझाते हुए बोले- ‘सिन्हा जी, आपने अपनी स्पष्ट राय मेरे सामने रखी, मुझे अच्छा लगा। पर यह प्रोग्रेसिव नजरिया नहीं है। आज के ग्लोबलाइजेशन के जमाने में इतना क्लोज्ड दायरे बनाकर नहीं चला जा सकता। कुछ रिस्क भी लेने ही पड़ते हैं। फिर हमारे मैनेजमेन्ट और केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री महोदय की भी यही इच्छा है कि इस बिषय पर हमें उनके द्वारा प्रस्तावित विश्वविद्यालय के साथ साझेदारी करनी ही चाहिए। कुछ फायदा उनसे हमारे विश्वविद्यालय और देश को होगा, तो कुछ फायदा तो दूसरा पक्ष भी उठायेगा ही। हमारे दोनों प्राफेसर्स प्रतिभाशाली हैं, उनके काम से ही हमारे नीलमणि विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी है, पर अभी भी हमारा भावी साझेदार विदेशी विश्वविद्यालय और उसके प्रोफेसर्स हमसे बहुत आगे हैं। फिर इस पी.जी. कोर्स के लिए निर्धारित चौबीस माह में से पहले इक्कीस माह तो हमारे ही पास हैं। हमारी डिग्री के आधार पर ही मात्र तीन माह का अन्तिम प्रशिक्षण और प्रोजेक्ट वर्क ही तो विदेश में होना है।’

‘सर, यह भी तो एक बेहद अटपटा सा नियम बनाया जा रहा है। ऐसा कहीं होता है कि एक विश्वविद्यालय की प्रदत्त डिग्री पर अन्तिम मोहर कोई दूसरा विश्वविद्यालय लगाये? मुझे तो इसमें एक गहरी साजिश नजर आ रही है।’

‘क्या सिन्हा, तुम भी ऊलजलूल बातें सोचते रहते हो, स्पेशल कोर्स के लिए मैनेजमेन्ट और सरकार कोई स्पेशल प्रावधान रखना चाहती है, तो तुम्हें इसमें साजिश नजर आने लगी! जब कोई नया नियम पहली बार बनता है, तो हमेशा ऐसा ही होता है। अब आप प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग के साथ हम दोनों की बैठक अरेन्ज कराओ और उसके बाद पाठ्यक्रम की तैयारी भी। साझेदारी के बारे में हमारे चान्सलर और प्रो. चान्सलर महोदय निश्चय कर चुके हैं और हम उस बारे में उन लागों को अब डिस्टर्व नहीं करेंगे।’ कहते हुए उपकुलपति महोदय ने अपनी कुर्सी से उठते हुए बैठक सम्पन्न होने का इशारा किया और प्रति उपकुलपति जी को जैसे तनाव से बाहर खींचने की कोशिश में बोले- ‘चलो यार! एक्जीक्यूटिव केन्टीन तक टहलते हुए चलते हैं, वहां बैठकर एक-एक कप चाय का आनन्द लेंगे। रजिस्ट्रार नारायणन को भी बुलवाता हूँ।’

कुछ ही दिन में कम्प्यूटर विज्ञान और न्यूक्लियर विज्ञान के समन्वय से पी.जी. स्तर का एक नया और विशेष पाठ्यक्रम प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग ने तैयार कर दिया, जो पूरे देश में अपनी तरह का अलग पाठ्यक्रम था। लक्ष्य था कम्प्यूटर विज्ञान और न्यक्लियर विज्ञान के पारस्परिक समन्वय की नई सम्भावनाओं की खोज तथा इस विषय पर कुछ अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के भावी वैज्ञानिक तैयार करना। अमेरिका के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय को तयशुदा नियमों के साथ अन्तर्राष्ट्रीय साझेदार बनाया गया। भारत के प्रधानमंत्री जी के द्वारा पाठ्यक्रम का शुभारम्भ किया गया। पहले बैच में देश के बेहद प्रतिभाशाली पन्द्रह छात्रों को प्रवेश मिला। इक्कीस माह तक कड़ी मेहनत और नई-नई खोजों और समन्वय से दोनों युवा प्रोफेसर्स ने पी.जी. स्तर के इस पाठ्यक्रम को शोध स्तर तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इक्कीस माह के बाद जब इन पन्द्रह भावी वैज्ञानिकों को नीलमणि विश्वविद्यालय ने अमेरिका रवाना करने से पूर्व एक शानदार कार्यक्रम में अनन्तिम डिग्री सौंपी, तो इस अवसर का साक्षी बनने के लिए कई केन्द्रीय मंत्रियों तक में होड़ लग गई थी। छात्रों के साथ अमेरिकी विश्वविद्यालय ने विशेष निमन्त्रण और बतौर स्पेशल गेस्ट तीन माह के लिए प्रो. जयेन्द्र और प्रो. नारंग को भी बुलाया।

आज अमेरिकी विश्वविद्यालय में अपने छात्रों का आखिरी दिन था और नीलमणि विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राठोर भी प्रो. सिन्हा के साथ वहां के समारोह में मौजूद थे। उनके मन में बेहद उत्साह था, कि कल जब अपने पन्द्रह होनहार भावी वैज्ञानिको के साथ वह भारत की भूमि पर लैण्ड करेगे, तो पूरा देश उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ेगा। लेकिन यह क्या.......? समारोह के बाद सभी पन्द्रह छात्र और दोनों प्रोफेसर्स उनके पास आये, उनके चरण-स्पर्श किये और लगे आशीर्वाद मांगने, ‘सर हम सबको यहां अमेरिका में बेहद उच्च पैकेज पर काम करने का अवसर मिल गया है। आप हमें आशीर्वाद दीजिए कि हम यहां अपने देश नाम रौशन ....!’

प्रो. राठोर को लगा जैसे वह गश खाकर गिर जायेंगे। बगल में खडे़ प्रो. सिन्हा ने उन्हे सहारा दिया, ‘सर, सम्हालिए अपने-आपको। अब अफसोस करने से कोई फायदा नहीं, आपके सपनों के ये सत्रह फूल तो भू-मण्डल के स्वामी की भेंट चढ़ चुके हैंे।‘



Friday, July 29, 2011

प्रेमचंद और लघुकथा विमर्श :-



भगीरथ

प्रेमचंद के लघुकथा साहित्य के संदर्भ में समकालीन लघुकथाओं की पड़ताल करना समीचीन होगा ! प्रेमचंद ने मुश्किल से बीस लघुकथाएं लिखी हैं । जो विभिन्न कहानी संग्रहों में प्रकाशित हुई है । इन कथाओं का कलेवर कहानी से छोटा है ,इस छोटे कलेवर में मामूली लेकिन महत्वपूर्ण कथ्यों को अभिव्यक्त किया गया है ।

आधुनिक हिंदी लघुकथा के जिस आदर्श रूप की परिकल्पना हम करते हैं , प्रेमचंद की लघुकथाएं कमोवेश उसमें फिट बैठती है । 'राष्ट्र सेवक ' चरित्र के विरोधाभास को खोलती है , कथनी - करनी के भेद को लक्ष्य कर राष्ट्र सेवक पर व्यंग्य करती है , इस तकनीक में लिखी सैकड़ो लघुकथाएं आज के लघुकथा साहित्य में मिल जायेगी !

'बाबाजी का भोग'एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें परजीवी साधुओं के पाखंड को बेनकाब किया गया है । धर्म भीरू मेहनतकश गरीब लोग उनके शिकार हो जाते हैं । गरीब लोगों के मुहँ का निवाला छीनकर स्वयं छ्क कर भोग लगाते हैं । प्रेमचंद धैर्य पूर्वक कथा कहते हैं । इनकी कथाएं तीव्रता से क्लाइमेक्स की ओर नहीं बढ़ती बल्कि धीरे - धीरे शिखर का आरोहण करती हैं जबकि आधुनिक लघुकथाएं तीव्रता से शिखर की ओर बढ़ती हैं , जिससे उनमें कथारस की कमी आ जाती है ।

'देवी' लघुकथा में गरीब अनाथ विधवा के उदात्त चरित्र को उकेरा गया है और यह एक मुकम्मिल लघुकथा बन गयी है । 'बंद दरवाजा ' बाल मनोविज्ञान अथवा उनकी स्वाभाविक मनोवृत्तियॉ को व्यक्त करती है । बच्चा कभी चिड़िया की ओर आकर्षित होता है ,तो कभी गरम हलवे की महक की ओर ,तो कभी खोंचे वाली की तरफ , लेकिन इनसे भी ऊपर उसे अपनी स्वतंत्रता प्यारी है । वह जगत की ओर उन्मुख है, उसे टटोलता है लेकिन बंद दरवाजा उसकी इस स्वाभाविक वृति पर रोक लगाता है उसने फ़ाऊंटेन पेन फेंक दिया और रोता हुआ दरवाजे की ओर चला क्योंकि दरवाजा बंद हो गया था ।

''यह भी नशा वह भी नशा '' में दो स्थितियों में तुलनात्मक दृष्टि से विरोधाभास को उकेरा है भांग का नशा हो या शराब का , नशे का परिणाम एक ही है लेकिन एक को पवित्र और दूसरे को अपवित्र मानना पांखड पूर्ण है आज का कथाकार इस कथा को लिखता तो उसका कलेवर और भी छोटा होता है लेकिन हमें नहीं भूलना चाहिए कि प्रेमचंद कहानीकार हैं उस समय लघुकथा विस्तार पूर्वक लिखने से इसमें लघुकथा की दृष्टि से कसाव की कमी है आधुनिक हिन्दी लघुकथा में इस तरह की तुलनात्मक स्थितियां बहुत सी कथाओं मिल जायेगी ।

प्रेमचंद की कई कथाएं कहानी का आभास देती है क्योंकि वे धीरे-धीरे विकसित होती है! वें प्रासंगिक प्रसंग भी जोड लेती है कुछ विस्तार भी पा लेती है और लघुकथा के कलेवर को लांघ भी जाती है! इससे उसमें कसाव की कमी आती है वे एक आयामी रहते हुए भी अन्य प्रसंग जुडने से बहुआयामी हो जाती है तब वे लघुकथा की सीमा ही लांघ जाती है!

"ठाकुर का कुँआ " मूल रुप से लघुकथा है लेकिन कुएँ पर खडी दो स्त्रियों की बातचीत ,ठाकुर के दरवाजे पर जमा बेफिक्र लोगो के जमघट जैसे प्रसंग उसे कहानी का ही आभास देते हैं ये कथा से प्रासंगिक होते हुए भी लघुकथा की दृष्टि से अनावश्यक है । स्त्रियों की बातचीत के प्रसंग को अलग लघुकथा में भी व्यक्त किया जा सकता था । इस तरह यह रचना बहुआयामी हो गयी है लेकिन जोर मूल कथ्य पर ही है और पाठक उसी कथ्य को ही पकड़ता है इसलिए इसे लघुकथा कहना अनुचित नहीं होगा । वैसे इन दो प्रसंगो को हटा दे तो एक बेहतरीन सुगठित लघुकथा प्रकट हो जायेगी ।

प्रेमचंद कहानी की तरह लघुकथा लिखते हैं उनकी बहुत सी कथाओं में उत्सुकता बनी रहती है जो पाठक को अंत तक बांधे रखती है, कथा के आरम्भ से आप कथ्य का अनुमान नहीं कर सकते , जबकि आज की लघुकथाओं में आरंभ या शीर्षक से ही कथ्य का अनुमान लगाया जा सकता है , जिससे उत्सुकता का तत्व ही समाप्त हो जाता है । कथा एक रहस्य को बुनती है जो अंत मे जाकर खुलता है । इस संदर्भ में ''गमी'' कथा विशेष तौर पर दृष्टव्य है लेकिन इसकी भाषा शैली और तेवर हास्य- व्यंग्य का है जो हास्य- व्यंग्य कालम के लिए फिट है । 'शादी की वजह ' खालिस व्यंग्य है इसे कथा की श्रेणी में रखना मुश्किल है क्योंकि इसमें कोई मुकम्मिल कथा उभरकर नहीं आती । बहुत से बहुत व्यंग्यात्मक टिप्पणी कहा जा सकता है ।


'दूसरी शादी' निश्चित ही कथा है जो प्रचलित विषय को लेकर लिखी गयी है । इस कथा को इसके क्लाइमेक्स पर ही समाप्त हो जाना चाहिए , क्योंकि कथा यहीं पर अपना मंतव्य अभिव्यक्त कर देती है । लेकिन अन्तिम तीन पैरा "दूसरी शादी" के दूसरे आयाम को अभिव्यक्त करते हैं इस तरह यह रचना कहानी की ओर अग्रसर हो जाती है लेकिन कहानी बनती नहीं है । आधुनिक लघुकथाएं अकसर क्लाइमेक्स पर ही समाप्त हो जाती है ।लघुकथा में एक ही कथ्य व एक ही क्लाइमेक्स सम्भव है। कई क्लाइमेक्स कहानी / उपन्यास मे हो सकते हैं । अत: एक आयामी कथ्य लघुकथा की आत्यंतिक विशेषता है ।


'कश्मीरी सेव' का पहला पेराग्राफ प्रस्तावना के रुप में है जो निरर्थक न होते हुए भी लघुकथा के लिए आवश्यक नहीं है । ऐसे ही विवरणों से लघुकथा एक कहानी होने का अहसास देती है । कथा को पहले पेराग्राफ के बाद से पढ़े और 'दुकानदार ने जानबुझकर मेरे साथ धोखेबाजी का व्यवहार किया । इसके बाद इस घटना पर लेखक की टिप्पणी है इस तरह कश्मीरी सेव भी विस्तार का शिकार हुई है ।

ललकारने वाली वाणी और मुद्रा से भिक्षावृति करने वाले साधुओं का चित्रण 'गुरुमंत्र' मे है । धर्म भीरू लोग उन्हें डर के मारे कुछ न कुछ दे देते हैं । वे भिक्षा को भी अधिकार रूप मे मांगते हैं । वे ऐसे मांगते हैं जैसे हफ्ता नहीं देने पर गुंडा अनिष्ट करने की धमकी देता है प्रेमचंद पाखंड को उधाड़ने में माहिर हैं । आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य ये साधु केवल गांजे की चिलम खींचने मे उस्ताद है यह कथा एक आयामी होने से लघुकथा ही है । दो - चार अनावश्यक पंक्तियों के अलावा विस्तार नहीं है ।

"दरवाजा" मनुष्य जीवन का साक्षी है वह अपने अनुभव ऐसे व्यक्त करता है ।जैसे सजीव पात्र हो ! दरवाजा मनुष्य की प्रवृत्तियों पर टिप्पणी करता है इस टिप्पणी का अंत आध्यात्मिक तेवर लिए हुए है। 'सीमित और असीमित के मिलन का माध्यम हूँ कतरे को बहर से मिलाना मेरा काम है मैं एक किश्ती हूँ मृत्यु से जीवन को ले जाने के लिए '! इस तरह की लघुकथाएँ आधुनिक लघुकथा साहित्य में बहुत कम उपलब्ध है। सौन्दर्य शास्त्र की दृष्टि से यह अच्छी लघुकथा है जो पाठकों को सुकून देती है !

दो बहनों के बीच हुए सम्वाद के माध्यम से कथा 'जादू' विकसित होती है पहले तकरार फ़िर तनुक मिजाजी फ़िर द्वेषता और अंत में दोनों के बीच रिश्ता बनता है!सम्वाद तकनीक में रचित सैकडों रचनाएँ आधुनिक लघुकथा में उपलब्ध हो जायगी ! भले ही उनमें नाटकीयता की कमी हो यह नाटकीयता सम्वाद पर आधारित कथाओं की जान है प्रेमचंद की इस कथा मे नाटकीयता खूब है !

'बीमार बहन' बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी निश्चित ही बच्चों को ध्यान में रख कर लिखी रचना है! पर इसे किसी भी दृष्टि से लघुकथा नहीं माना जा सकता वस्तुत: यह कथा है ही नहीं ! इसमें कोई द्वन्द्व नहीं कोई शिखर या अंत नहीं ! सीधे - सीधे बीमार बहन के प्रति भाई की चिंता ,बहन की सेवा के माध्यम से व्यक्त है !

वैसे तो प्रेमचंद की कहानियो/लघुकथाओं में काव्य का अभाव ही रहता है लेकिन 'बांसुरी' में केवल काव्य तत्व का सौंदर्य ही है ! रात के सन्नाटें में 'बासुरी ' की स्वरलहरी को काव्यात्मक अंदाज में अभिव्यक्त किया गया है; लगता है जैसे कहानी के किसी भाग का टुकडा भर हो! यह लघुकथा नहीं है!



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Sunday, July 10, 2011

लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया का स्वरूप

भगीरथ

नीति एवं बोध कथाएँ जीवन के उत्कट अनुभव को सीधे-सीधे व्यक्त करने की बजाय उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न विचार को रूपक कथाओं के माध्यम से व्यक्त करती हैं। (जबकि) समकालीन लघुकथाएँ अधिकांशतः अनुभव के बाह्य विस्तार में न जाकर अनुभवात्मक संवेदनाओं की पैनी अभिव्यक्ति करती हैं। अतः इन दो प्रकार की रचनाओं की सृजन-प्रक्रिया भी अलग-अलग है।

स्थिति, मनःस्थिति, वार्तालाप, व्यंग्य, मूड, पात्र आदि संबंधी वे अनुभव जो लघु कलेवर एवं कथारूप में व्यक्त हो सकने की संभावना रखते हैं, साथ ही, रचना की संपूर्णता का आभास देते हों, उन्हें लघुकथाकार अपनी सृजनशील कल्पना, विचारधारा, अन्तर्दृष्टि एवं जीवनानुभव की व्यापकता से लघुकथा में अभिव्यक्ति देता है।

जो लघुकथाएँ विचार के स्तर पर रूपायित होती हैं, उनके लिए कथाकार घटना, कथानक, रूपक या फेंटेसी की खोज करता है। प्रस्तुत खोज में अनुभव की व्यापकता के साथ ही सृजनशील कल्पना की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह खोज विधागत सीमाओं के भीतर ही होती है।

जब रचना एक तरह से मस्तिष्क में मेच्योर हो जाती है और संवेदनाओं के आवेग जब कथाकार के मानस को झकझोरने लगते हैं, तब रचना के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इस प्रक्रिया के दौरान रचना परिवर्तित होती है। भाषा-शिल्प पर बार-बार मेहनत से भी रचना में बदलाव आता है। यह बदलाव निरंतर रचना के रूप को निखारता है। यह भी संभव है कि मूल कथा ही परिवर्तित हो जाये।

लघुकथा संयमी विधा है। इसके लिए कथाकार को अनावश्यक छपे शब्दों का मोह छोड.ना पड.ता है। लघुता एवं अभिव्यक्ति के पैनेपन को प्राप्त करने के लिए शब्द, प्रतीक, बिंब, लोकोक्ति एवं मुहावरों ज्युडीशियस सलेक्शन(Judicious Selection) करता है और उसे कोहरेन्ट(Coherent) रूप में प्रस्तुत करता है। लघुकथा में कहीं बिखराव का एहसास होते ही लघुकथाकार एक बार फिर कलम उठाता है। अक्सर लघुकथा को आरम्भ करने में काफी कठिनाई होती है। आरंभ बार-बार बदल सकता है क्योंकि कुछ ही वाक्यों में लघुकथा को एक तनावपूर्ण चरमस्थिति तक पहुँचाना होता है। चरमस्थिति पर रचना का फैलाव होता है और वहीं अप्रत्याशित ही, रचना एक झटके से अन्त तक पहुँच जाती है। इससे रचनाकार कथा को प्रभावशाली और संप्रेषणीय बना देता है।

अनेक लघुकथाओं में अन्त अधिक चिन्तन और मेहनत माँगता है, क्योंकि पूरी रचना का अर्थ अन्त में ही स्पष्ट होता है। ऐसा प्रमुखतः धारदार व्यंग्य(हास्य-व्यंग्य नहीं) एवं वार्तालाप शैली में लिखी गई लघुकथाओं में होता है। संवादों को छोटा, चुस्त, स्पष्ट एवं पैना करने में कथाकार की सृजनशक्ति और मानसिक श्रम विशेष महत्व रखते हैं।